स्मृतियों की दीवार पर कुछ नाम हमेशा के लिए दर्ज हो जाते हैं: प्रिया दर्शन
"एक पत्रकार की स्मृतियाँ, विदाई के लम्हे, और उस रिश्ते की कसक जो वक़्त के साथ और गहराता गया"

नई दिल्ली । यह उस शुरुआत का दौर था जब कुछ अनजान लोग धीरे-धीरे एक-दूसरे को पहचानने लगे थे। यह 6 जनवरी 2003 की बात है, जब हम एक नए चैनल – एनडीटीवी – की नींव रखने जा रहे थे। उसी दिन पहली बार निधि कुलपति से मुलाक़ात हुई।
उस दिन हमारे पास काम कम था, लेकिन एक-दूसरे से परिचित होने का समय भरपूर था। दोपहर बाद निधि और मैं नीचे उतरे और दादा की दुकान पर साथ ब्रेड पकौड़े खाए। यह एक साधारण दिन था, लेकिन आने वाले वर्षों में वही दिन एक असाधारण स्मृति बन गया।
वक़्त बीतता गया। चैनल ने उड़ान भरी, पत्रकारिता में नई ऊर्जा और मानक स्थापित किए। हम सबने साथ में सीखा, साथ में काम किया। बाल सफेद होने लगे, हम युवा पत्रकारों से वरिष्ठ हो गए। कुछ लोग छूटते गए, कुछ नए चेहरे शामिल होते गए। लेकिन अर्चना बिल्डिंग की वे पचास सीढ़ियाँ, जो हमने दो दशक तक चढ़ीं, पत्रकारिता की सच्ची कार्यशाला रहीं—जहां हम सत्ता से सवाल करना और संस्थानों से टकराना सीखे।
बहुत कुछ बदला—हम भी बदले। लेकिन कुछ रिश्ते, कुछ मूलभूत मूल्य अब भी जस के तस हैं।
निधि, एक आग्रह की तरह, अपने पेशे के प्रति उतनी ही निष्ठावान रहीं। उम्र उनके आत्मबल के सामने हारती रही। और मैं, अपने तमाम संदेहों और संघर्षों के साथ, बना रहा। हमारे बीच सहकर्मी से अधिक, एक आत्मीय रिश्ता बनता चला गया।
हमने एक-दूसरे पर झुंझलाहट भी जाहिर की, बहसें भी कीं, लेकिन जब ज़रूरत पड़ी—चाहे मदद की हो या मशवरे की, या कभी अपनी उलझनों को साझा करने की—हमने एक-दूसरे पर भरोसे से यह किया।
एक बार निधि ने बताया था कि वे मुझसे उम्र में बड़ी हैं। मैंने यह बात पूरे न्यूज़रूम में बता दी। निधि मुस्कराईं, क्योंकि उन्हें तब तक मेरे स्वभाव का अंदाज़ा हो चुका था।
असदुर्रहमान क़िदवाई को कम लोग जानते हैं, लेकिन एनडीटीवी की डेस्क पर वे हममें से पहले थे। हमारे लिए वे सिर्फ़ ‘असद’ थे। भीतर से बेहद संजीदा, ऊपर से शरारती। भाषा के प्रति सजग, उर्दू शायरी और अदब के गहरे जानकार। उनकी स्मृति उतनी ही तेज़, जितनी उनका पाठ सुंदर।
शमशेर बहादुर सिंह की एक पंक्ति—“मैं हिंदी और उर्दू का दोआब हूं”—जैसे असद के व्यक्तित्व का प्रतिबिंब लगती है। उनका परिहास-बोध तीखा, कभी-कभी असहज कर देने वाला, लेकिन हमेशा प्रखर।
कल निधि की विदाई हुई, आज असद जा रहे हैं।
और यह एहसास गहरा हो रहा है कि एक-एक कर हम सभी इस व्यवस्था से विदा ले रहे हैं। यह दुनिया यूँ ही चलती रहेगी, लेकिन उसकी रौनक थोड़ी कम हो जाएगी।
आज जिस टीवी इंडस्ट्री का हम हिस्सा हैं, वह अपनी चमक-दमक के पीछे निरंतर अर्थहीनता में बदलती जा रही है। पर्दे पर रोशनी है, लेकिन पत्रकारिता में अंधेरा बढ़ रहा है। आवाज़ें ऊंची हो रही हैं, लेकिन सच्चाई गुम हो रही है।
कल निधि के साथ तस्वीरें लेने की होड़ थी। मेरे पास कुछ नहीं, बस असद द्वारा वर्षों पहले ली गई एक तस्वीर है—जिसमें हम तीनों हैं: दो दृश्य, एक अदृश्य।
और अब वह समय पास है जब हम सब अदृश्य होते जाएंगे।
नासिर काज़मी की पंक्तियाँ याद आती हैं—
“किसे ढूंढ़ोगे इन गलियों में नासिर,
चलो अब घर चलें, दिन जा रहा है।”
यह लेख एक पत्रकार की स्मृतियों, भावनाओं और पेशेवर रिश्तों की यात्रा का दस्तावेज़ है—जहाँ दोस्त, सहयोगी और इंसान एक-दूसरे में घुलमिल जाते हैं।