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OPINION

राजा की वापसी — नेपाल में एक नई राजनीतिक बहस

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देश और दुनिया

“हाल की घटनाएं कुछ लोगों को चौंका सकती हैं, नेपाल की गणतांत्रिक व्यवस्था के प्रति उसकी गहरी प्रतिबद्धता स्पष्ट बनी हुई है”

धनंजय त्रिपाठी / नई दिल्ली । मार्च का महीना नेपाल आने के लिए सबसे अच्छा समय माना जाता है — नर्म तापमान और साफ आसमान, एक सुंदर प्राकृतिक पृष्ठभूमि प्रदान करते हैं। लेकिन जहां प्रकृति शांत बनी हुई है, वहीं नेपाल का राजनीतिक परिदृश्य हाल ही में काफी अशांत रहा है। बीते कुछ हफ्तों में नेपाल के अंतिम सम्राट, राजा ज्ञानेन्द्र शाह की अप्रत्याशित वापसी ने एक नया राजनीतिक तूफान खड़ा कर दिया।

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रिपोर्टों के मुताबिक, राजधानी काठमांडू में हवाई अड्डे पर 10,000 से अधिक समर्थकों ने पूर्व राजा का ज़ोरदार स्वागत किया। मार्च के अंत तक, राजतंत्र समर्थक समूहों ने प्रदर्शन किए, जिनमें हिंसा हुई और दो लोगों की दुखद मौत हो गई। इन घटनाओं ने 2008 में समाप्त किए गए राजतंत्र पर बहस को एक बार फिर जीवित कर दिया है। उस वर्ष, संविधान सभा ने नेपाल को एक संघीय लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित किया था, जिससे दो शताब्दियों से अधिक समय का शाही शासन समाप्त हुआ। उस समय यह परिवर्तन बड़े उत्साह और आशा के साथ अपनाया गया था।

राजतंत्र बनाम गणतंत्र

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राजा ज्ञानेन्द्र का गर्मजोशी से स्वागत और बाद के हिंसक प्रदर्शन एक बड़ा सवाल उठाते हैं — क्या राजशाही के दौरान हालात बेहतर थे? लोग एक बार छोड़ी गई व्यवस्था की ओर फिर क्यों देख रहे हैं? इन सवालों का उत्तर आर्थिक आंकड़ों में कहीं छिपा है।

राजतंत्र के दौरान, केंद्रीकृत सत्ता और जवाबदेही की कमी ने सत्तारूढ़ वर्ग को समृद्ध होने का अवसर दिया, जबकि आम जनता गरीबी में जूझती रही। राणा शासन (1846–1951) विशेष रूप से शोषणकारी था। उस दौर में कृषि आधारित अर्थव्यवस्था में 80% से अधिक लोग कार्यरत थे, और राणा शासकों ने ‘बिर्ता प्रणाली’ लागू की, जिसमें कर-मुक्त ज़मीनें अपने परिवारों और समर्थकों को बांटी गईं। इससे अधिकतर किसान केवल बंटाईदार या किरायेदार बनकर रह गए। राणा शासकों ने नेपाल के विकास पर भी कोई विशेष ध्यान नहीं दिया, जिसके चलते देश बुनियादी सामाजिक और भौतिक संरचना में पिछड़ गया।

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शाह वंश के दौरान मामूली सुधार जरूर हुए, लेकिन आर्थिक प्रगति ठप रही। 1990 में, जब राजा बीरेन्द्र के तहत नेपाल में संवैधानिक राजतंत्र था, तब प्रति व्यक्ति आय केवल $200 थी। 2008 में, जब राजशाही का अंत हुआ, तब यह आंकड़ा केवल $450 तक पहुंचा — लगभग दो दशकों में भी मामूली बढ़ोतरी।

इसके विपरीत, गणराज्य बनने के बाद नेपाल ने महत्वपूर्ण आर्थिक प्रगति की। 2023 तक, प्रति व्यक्ति आय $1,324 हो गई, और औसत वार्षिक विकास दर 4.95% रही। सिर्फ डेढ़ दशक में आमदनी तीन गुना हो गई, जिसका श्रेय अंतरराष्ट्रीय निवेश और आर्थिक विविधता को जाता है। मानव विकास सूचकांक (HDI) भी 2010 में 0.491 से बढ़कर 2021 में 0.602 हो गया।

हालांकि, सभी आंकड़े सकारात्मक नहीं हैं। गरीबी उन्मूलन, जो राजशाही के अंत वर्षों में तेज़ गति से हो रहा था (1995-96 में 42% से घटकर 2003-04 में 25.2%, यानी 2.1% प्रतिवर्ष), अब धीमा हो गया है। 2010-11 से 2024 तक, गरीबी केवल 1.3% घटी — यानी हर साल औसतन केवल 0.1%। हालांकि, यह भी ध्यान रखना होगा कि इस अवधि में नेपाल ने दो बड़ी आपदाओं — 2015 का भूकंप और कोविड महामारी — का सामना किया। आय वितरण हालांकि पहले से अधिक समान हुआ है, लेकिन गरीबी हटाने की धीमी रफ्तार चिंता का विषय बनी हुई है।

विरोधाभास और असंतोष

गणराज्य की आर्थिक उपलब्धियों के बावजूद, कुछ गंभीर समस्याएं जनता में असंतोष को जन्म देती हैं। सबसे बड़ी समस्या है — राजनीतिक अस्थिरता। 2008 से अब तक नेपाल में 13 सरकारें बन चुकी हैं, लेकिन कोई भी सरकार अपना 5 साल का कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई। यह लगातार परिवर्तन लोगों में राजनीतिक व्यवस्था के प्रति अविश्वास पैदा करता है। भ्रष्टाचार की व्यापक शिकायतें भी जनविश्वास को कमजोर करती हैं।

एक और बड़ी चिंता है — बेरोज़गारी, खासकर युवाओं में। 2023 में कुल बेरोजगारी दर 10% थी, लेकिन युवाओं (15–24 वर्ष के बीच) में यह 20% तक पहुंच गई। नेपाल की अर्थव्यवस्था अब भी प्रवासी श्रमिकों की कमाई पर निर्भर है — जो कुल GDP का 26% हिस्सा है — यह घरेलू विकास की धीमी गति और रोजगार सृजन की कमी को दर्शाता है।

क्या यही कारण हैं जो लोगों को राजतंत्र की ओर लौटने को प्रेरित कर रहे हैं? इसका स्पष्ट उत्तर देना कठिन है, लेकिन यह ज़रूर कहा जा सकता है कि ये समस्याएं असंतोष की जड़ में हैं। साथ ही, कुछ वर्गों में वैचारिक रूप से हिंदू राष्ट्र और राजतंत्र के समर्थन को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। राष्ट्रवादी और राजतंत्र समर्थक पार्टी राष्ट्रिय प्रजातन्त्र पार्टी (RPP) ने 2022 के आम चुनावों में 5.3% वोट और 14 संसदीय सीटें जीतीं, जिससे वह संसद की पांचवीं सबसे बड़ी पार्टी बन गई। हालिया प्रदर्शनों में सक्रिय रही यह पार्टी पारंपरिक उच्च जाति के रूढ़िवादी वर्गों में लोकप्रिय है।

यह लेख मूल रूप से तेलंगाना टुडे से लिया गया है, जो भारत का एक प्रमुख अंग्रेजी भाषा का राष्ट्रीय दैनिक समाचार पत्र है। इसका प्रकाशन तेलंगाना पब्लिकेशन प्रा. लि. द्वारा हैदराबाद से किया जाता है।

भारत का क्या रोल है?

9 मार्च को राजा ज्ञानेन्द्र के स्वागत में आयोजित रैली में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के पोस्टर देखे गए। रिपोर्टों के अनुसार, राजा ज्ञानेन्द्र ने भारत में योगी आदित्यनाथ से मुलाकात की थी, जिससे नेपाल में राजनीतिक हलकों में चर्चा शुरू हो गई। कुछ नेपाली विश्लेषकों ने इस रैली को “भारत की साज़िश” करार दिया, लेकिन यह आरोप ज़्यादा राजनीतिक रणनीति प्रतीत होता है, जिससे राजतंत्र समर्थक आंदोलन को बदनाम किया जा सके।

हालांकि भारत में कुछ लोग नेपाल में हिंदू राष्ट्र की भावना के साथ सहानुभूति रखते होंगे, लेकिन इस बात के कोई ठोस प्रमाण नहीं हैं कि भारत की कोई आधिकारिक राजनीतिक योजना इसमें शामिल है। भारत की आम जनभावना नेपाल में शांति, समृद्धि और लोकतंत्र के समर्थन में है। नेपाल में कुछ राजनीतिक दलों द्वारा बार-बार “भारत कार्ड” खेलना, असल मुद्दों — जैसे बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार और अस्थिरता — से ध्यान भटकाने का हथकंडा है।

राजतंत्र समर्थक गतिविधियों का यह उभार नेपाल और उसके बाहर सभी की निगाहें खींच रहा है। लेकिन यह तय है कि लोकतांत्रिक संघर्षों की लंबी और कठिन यात्रा तय करने वाला नेपाल, अब पीछे मुड़ने को तैयार नहीं है। हालांकि वैश्विक स्तर पर रूढ़िवादी राजनीति का उभार और घरेलू अपेक्षाओं की पूर्ति न होना, जैसे कारक, RPP जैसी पार्टियों के लिए ज़मीन तैयार करते हैं।

जहां हाल की घटनाएं कुछ को चौंका सकती हैं, वहीं नेपाल की गणतंत्र व्यवस्था के प्रति उसकी गहरी और स्थायी प्रतिबद्धता स्पष्ट रूप से बनी हुई है। साजिश के सिद्धांतों पर भरोसा करने की बजाय, असली समस्याओं का समाधान तलाशना ही देश की स्थिरता और प्रगति का रास्ता है।

(लेखक, दक्षिण एशियाई विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में अंतरराष्ट्रीय संबंध विभाग में वरिष्ठ एसोसिएट प्रोफेसर हैं।)

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