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उत्तराखंड: कुमाऊं क्षेत्र के गांवों से पलायन की बढ़ती समस्या

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बागेश्वर । उत्तराखंड का कुमाऊं क्षेत्र, जो नैनीताल, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, बागेश्वर, चंपावत और ऊधमसिंह नगर जैसे जिलों से मिलकर बना है, अपने प्राकृतिक सौंदर्य, सांस्कृतिक विविधता और ऐतिहासिक महत्व के लिए प्रसिद्ध है। हालांकि, पिछले कुछ दशकों में, इस क्षेत्र के गांवों से बड़े पैमाने पर पलायन देखा गया है, जिससे कई गांव खाली हो गए हैं और उन्हें ‘भूतिया गांव’ कहा जाने लगा है। रोजगार, शिक्षा और बुनियादी सुविधाओं की कमी के कारण लोग अपने गांवों को छोड़कर शहरों में बेहतर जीवन की तलाश में जाने को मजबूर हो रहे हैं। गांवों में रोजगार के सीमित अवसर पलायन का प्रमुख कारण हैं। अधिकांश ग्रामीण आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर हैं, लेकिन परंपरागत खेती के तरीकों और आधुनिक तकनीक की अनुपलब्धता के कारण खेती अलाभकारी हो गई है। युवा पीढ़ी बेहतर नौकरियों की तलाश में महानगरों की ओर रुख कर रही है। इसके साथ ही, कुमाऊं के अधिकांश गांवों में उच्च शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं की कमी ने भी पलायन को और बढ़ावा दिया है। परिवार अपने बच्चों के बेहतर भविष्य और स्वास्थ्य देखभाल के लिए शहरों में शिफ्ट हो रहे हैं।

बुनियादी ढांचे की कमी ने ग्रामीण जीवन को और कठिन बना दिया है। सड़क, बिजली, और पानी जैसी आवश्यक सुविधाओं की अनुपलब्धता से लोग अपने गांवों को छोड़ने के लिए मजबूर हो रहे हैं। यह समस्या न केवल लोगों के जीवन को प्रभावित कर रही है, बल्कि पर्यावरण और सांस्कृतिक धरोहर पर भी गहरा असर डाल रही है। गांवों के खाली होने से कृषि भूमि बंजर हो रही है, जिससे स्थानीय उत्पादन में कमी आई है। सांस्कृतिक रूप से, पारंपरिक त्योहार, लोकगीत और रीति-रिवाज धीरे-धीरे समाप्त हो रहे हैं, क्योंकि इन्हें संरक्षित करने वाले लोग अब वहां नहीं हैं। खाली गांवों में अतिक्रमण और जंगली जानवरों के खतरे ने पर्यावरणीय संतुलन को भी बिगाड़ दिया है। इस समस्या का सबसे बड़ा उदाहरण बागेश्वर जिले का बुडगुना गांव है, जहां अधिकांश परिवार रोजगार और शिक्षा की तलाश में पलायन कर चुके हैं। जो लोग बचे हैं, वे वृद्ध हैं और कृषि जैसे कार्यों को संभालने में असमर्थ हैं। नतीजतन, गांव की अधिकांश भूमि बंजर हो चुकी है और सामुदायिक जीवन पूरी तरह से टूट चुका है

उत्तराखंड सरकार ने पलायन को रोकने के लिए ‘पलायन आयोग’ की स्थापना की है। इसके तहत ग्रामीण क्षेत्रों में पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए होमस्टे योजनाएं शुरू की गई हैं, जो स्थानीय लोगों को रोजगार प्रदान कर रही हैं। स्थानीय उत्पादों के विपणन और जैविक खेती को प्रोत्साहित करने के लिए स्वयं सहायता समूहों का गठन किया गया है। सड़क, बिजली, और पानी जैसी बुनियादी सुविधाओं को विकसित करने के लिए नई योजनाएं भी लागू की जा रही हैं। पलायन की समस्या को प्रभावी ढंग से हल करने के लिए दीर्घकालिक रणनीतियों की आवश्यकता है। शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं को गांवों में पहुंचाने के साथ-साथ रोजगार के स्थायी विकल्प तैयार करने होंगे। स्थानीय स्तर पर लघु उद्योग और सामूहिक खेती को प्रोत्साहित करना भी इस दिशा में एक बड़ा कदम हो सकता है। सांस्कृतिक धरोहर को संरक्षित करने के लिए विशेष पहल करनी चाहिए ताकि परंपराएं और त्योहार जीवित रह सकें।

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कुमाऊं क्षेत्र के गांवों का पलायन एक गंभीर लेकिन सुलझने योग्य समस्या है। सरकारी और स्थानीय प्रयासों से इसे नियंत्रित किया जा सकता है। यदि विकास, शिक्षा, और रोजगार पर जोर दिया जाए, तो न केवल पलायन रुकेगा, बल्कि गांवों की समृद्धि भी लौटाई जा सकेगीबुडगुना और अन्य गांवों की खोई हुई जीवंतता को पुनः स्थापित करना संभव है। गांवों की पहचान और पहाड़ों की जान को बचाने की जिम्मेदारी हम सभी की है

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Aashish Tripathi

आशीष त्रिपाठी एक सीनियर डिजिटल कंटेंट प्रोड्यूसर हैं, जिन्होंने हेमवती नंदन बहुगुणा विश्वविद्यालय से जनसंचार एवं पत्रकारिता में स्नातक और आईएमएस यूनिसन यूनिवर्सिटी से डिजिटल मार्केटिंग एवं सोशल मीडिया स्ट्रेटेजी में स्नातकोत्तर की पढ़ाई की है। उन्होंने अपने करियर की शुरुआत न्यूज में की, जिसके बाद द मैक्स ग्रुप और इन्शॉर्ट्स, डेली सोशल जैसे प्रतिष्ठित मीडिया और कॉरपोरेट संस्थानों में काम किया। वर्तमान में, वे दून खबर के ऑनलाइन डेस्क पर कार्यरत हैं। आशीष को अंतरराष्ट्रीय संबंध, कूटनीति, राजनीति और मनोरंजन की खबरों में गहरी रुचि है, और डिजिटल पत्रकारिता में लगभग 10 वर्षों का अनुभव है।

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