उत्तराखंड के लिए सिविल डिफेंस क्यों जरूरी हो गया है? सीमाएं, सुरक्षा और रणनीतिक सतर्कता का विश्लेषण
"सीमाओं से सटे उत्तराखंड के लिए सिविल डिफेंस क्यों बना जरूरत: सुरक्षा, सजगता और रणनीतिक तैयारी का विश्लेषण"

विशेष टिप्पणी
आशीष त्रिपाठी, देहरादून । उत्तराखंड की भौगोलिक स्थिति इसे एक रणनीतिक रूप से बेहद महत्वपूर्ण राज्य बनाती है। उत्तर में चीन और पूर्व में नेपाल से सटी लगभग 620 किलोमीटर लंबी अंतरराष्ट्रीय सीमा किसी भी तरह की अनहोनी की आशंका को नजरअंदाज नहीं कर सकती। ऐसे में सवाल यही है—क्या अब बहुत देर हो चुकी है या फिर समय रहते उठाए गए कदम आने वाले संकटों को टाल सकते हैं?
हाल ही में भारत-पाकिस्तान के बीच उपजे तनाव ने एक बार फिर केंद्र सरकार को अपनी सीमाओं और सुरक्षा ढांचे पर पुनर्विचार करने के लिए मजबूर कर दिया है। इस राष्ट्रीय सुरक्षा विमर्श के केंद्र में उत्तराखंड भी आ खड़ा हुआ है, जिसकी संवेदनशील सीमाएं किसी भी संभावित सैन्य या असैनिक खतरे के निशाने पर आ सकती हैं।
एक राज्य, दो सीमाएं, अनगिनत चुनौतियां
उत्तरकाशी, चमोली और पिथौरागढ़ जैसे जिलों की चीन से लगती सीमा और चंपावत, बागेश्वर, उधम सिंह नगर से नेपाल से लगती सरहद, इस राज्य को सैन्य और असैनिक दोनों ही स्तर पर सजग और सक्रिय रहने की जरूरत का संकेत देती है। खासकर पिथौरागढ़, जो दोनों देशों से सीमा साझा करता है, वह आज की तारीख में सामरिक दृष्टि से “हॉटस्पॉट” बन चुका है।
सिविल डिफेंस: केवल औपचारिकता नहीं, अनिवार्यता
देहरादून को छोड़कर शेष जिलों में सिविल डिफेंस का अभाव किसी चूक से कम नहीं। सवाल उठता है कि क्या अब जाकर सरकार को सिविल डिफेंस की अहमियत का एहसास हुआ है? मुख्य सचिव आनंद वर्धन के नेतृत्व में सिविल डिफेंस को लेकर जो कवायद शुरू हुई है, वह स्वागतयोग्य जरूर है, लेकिन देर से लिया गया निर्णय भी है।
यह केवल एक प्रशासनिक संरचना नहीं, बल्कि वह सामाजिक सुरक्षा कवच है, जिसमें आम नागरिक की भागीदारी भी उतनी ही जरूरी है जितनी कि प्रशासनिक मशीनरी की। गृह मंत्रालय के 1968 के नागरिक सुरक्षा नियमों के तहत इसका कार्यक्षेत्र युद्धकालीन परिस्थितियों या बाहरी हस्तक्षेप की स्थिति में राज्य को तैयार रखने का होता है।
सेना और सिविल डिफेंस की साझेदारी
सिविल डिफेंस को लेकर एक बड़ा मुद्दा यह भी है कि सेना और प्रशासन के बीच कितनी प्रभावी तालमेल है। राज्य सरकार अब सेना, वायुसेना और अर्धसैनिक बलों के साथ तालमेल बढ़ाने की बात कह रही है, जो वास्तविक आपदा या युद्ध जैसे हालात में बेहद निर्णायक साबित हो सकती है।
बांधों की सुरक्षा: नजरअंदाज नहीं किया जा सकता
उत्तराखंड केवल सीमाओं की दृष्टि से संवेदनशील नहीं, बल्कि यहां मौजूद टिहरी जैसे विशाल बांधों की सुरक्षा भी उतनी ही महत्वपूर्ण है। अगर सिविल डिफेंस की रूपरेखा में इन संरचनाओं की सुरक्षा को प्राथमिकता नहीं दी गई, तो यह एक बड़ी चूक होगी। सरकार द्वारा सभी बांधों के लिए अलग सुरक्षा तंत्र और ऑडिट की योजना निश्चित ही स्वागत योग्य है।
निष्कर्ष: तैयारी कल नहीं, आज जरूरी है
उत्तराखंड की सीमाओं पर अगर कोई अप्रत्याशित गतिविधि होती है, तो उसे केवल सेना या पुलिस नहीं, बल्कि स्थानीय नागरिक, प्रशासन और सिविल डिफेंस की एक समन्वित संरचना ही प्रभावी रूप से संभाल सकती है।
ब्रिगेडियर (रिटायर्ड) विनोद पसमोला की बातों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। वह कहते हैं, “सिविल डिफेंस महज आपदा प्रबंधन का हिस्सा नहीं, यह राज्य की सामरिक चेतना का प्रतिबिंब है।”
सरकार को अब विकल्प नहीं, बल्कि एकमात्र रास्ता चुनना होगा—हर सीमावर्ती जिले को सिविल डिफेंस के कवच में लाना, और नागरिकों को इसके लिए प्रशिक्षित करना। क्योंकि आज की भू-राजनीतिक परिस्थितियां हमें यही सिखाती हैं—सतर्कता ही सुरक्षा है।